Saturday, April 28, 2012

रूबरू हो मेरे


एक आईना
रूबरू हो मेरे
कुछ उसमे भी प्रतिबिंबित  हो जाये

चमकदार सूरज की तरह
इन्द्रदानुष की तरह
बिन कपासी मेघ
की तरह...
नीलापन लिए ....
दूर  चटकीले ..
तारे की तरह ....

ये  कल्पना
कोरी कोरी
जैसे कोरा कागज
भीग गया हो
सूरज की तपिस का
इंतजार हो
डर भी हो
किसी की छुअन से .......

स्पर्श का अधूरापन हो
झील के शांत जल के साथ
वो भी गर आईना हो
प्रतिबिंबित हो ........


................................................मनोज कुमार भरद्वाज (मन कुमार)


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