Saturday, April 28, 2012

रूबरू हो मेरे


एक आईना
रूबरू हो मेरे
कुछ उसमे भी प्रतिबिंबित  हो जाये

चमकदार सूरज की तरह
इन्द्रदानुष की तरह
बिन कपासी मेघ
की तरह...
नीलापन लिए ....
दूर  चटकीले ..
तारे की तरह ....

ये  कल्पना
कोरी कोरी
जैसे कोरा कागज
भीग गया हो
सूरज की तपिस का
इंतजार हो
डर भी हो
किसी की छुअन से .......

स्पर्श का अधूरापन हो
झील के शांत जल के साथ
वो भी गर आईना हो
प्रतिबिंबित हो ........


................................................मनोज कुमार भरद्वाज (मन कुमार)


Friday, April 27, 2012

वजूद


उसे क्यों अफसोस हुआ
वो तो बस वो ही जाने 
उसने तो बस जमीन की तरफ छलांग लगा दी  थी
किसी को.....
किसी को ...भिगाने के लिए 
वो खुद का वजूद भूल कर,
आखिर वो थी
बारिश की
बूँद ही न  

दीये का धुँआ



अब जब इस,
किराये के मकान में, शहर में  है 
तब उस .......
दीये का धुँआ याद आता है, 
जो दिन ढलतें ही.......घर में ...घुटन पैदा करता था 

दीये का धुँआ
घुटन पैदा करता था 
सुकून के साथ 

गाव के उस पुराने घर में 
एक गुलदस्ता हुआ करता था
जो उस 
कोने को खुबसूरत बनाने  में 
अपनी सारी जिंदगी 
वही बैठे-बैठे बिता दी  
मगर जब उसे नए घर ले जा रहे थे 
तो 
उस 
कोने के लिए टूट गया 
कोने के पास ही बिखर गया 

ये तो जिद है ,


ये तो जिद है , 
हमने  तो दिल रखने के लिए कहा था की 
तारें तोड़ लायेंगें,
अब वो तारों  की जिद में मुह फुलाएं बैठे  है 

एक किताब खरीदी थी उर्दू की 
की कुछ नए शब्दों के साथ उसे 
कुछ नया सुनायेगे वो है कानो में 
ठेपी लगाये बैठे है 

रोज की तरह, हुआ है दिन 
और ........ 
शाम भी 
ना है...... कल की तरह वो आराम भी 

Thursday, April 26, 2012

वि आई पी


पहले  तो थोडा बहुत 
समझते  थे 
अब जाने  ये क्या हुआ है 
की अब समझाते रहते है 

तरकीबे बदल बदल कर थक जाया  करते है
ये कैसा प्यार  है जो अब बदलता ही नहीं
छोटी सी तो बात
ये बात क्या है पता नहीं 

कोई है या नहीं है
खुदा से पूछना चाहा
पर वो है की कभी मिलता ही नहीं 

आज कल ये बादल आ जातें है 
बरसने के लिए 
मौसम कौन  सा चल रहा है
ये जानतें ही नहीं 

ये मोबाइल का मिजाज 
बदलता जा रहा है 
पहले हेल्लो जी हेल्लो जी 
 अब 
टू जी  
थ्री जी 
फॉर जी 
क्या क्या जी 

एक पत्थर कही मिलता ही नहीं
जिसे हम भी खुदा कह ले 

उस बगीचे में फलदार पेड़ थे 
मगर सारे ही प्री पेड़ थे 

जवाब, हाज़िर जवाबी का 
कैसे तूल पकड़ा, जो पकड़ा भी 
ज़नाब, ज़नाब को वि आई पी  की तरह 

Monday, April 16, 2012

यहाँ नहीं चलती

ये कसीदे तो आम हो हो जाते है
यहाँ नहीं चलती
वहा नहीं चलती
पर जो चली थी हवा
अपना रुख बदल कर
उस रुख पर अब मेरी भी नहीं चलती ।


कभी मैंने भी कहा था की
कहने दो मुझे
मगर कहावते बन गई
आपके सुनने से पहले ।

Sunday, April 15, 2012

बदलतें बदलतें

मै भी बदला,
वो भी बदली, बदलतें बदलतें हम दोनों
बदल गए,
वही, वही मोड़ चौराहे का,रास्तें बदल गएँ