एक आईना
रूबरू हो मेरे
कुछ उसमे भी प्रतिबिंबित हो जाये
चमकदार सूरज की तरह
इन्द्रदानुष की तरह
बिन कपासी मेघ
की तरह...
नीलापन लिए ....
दूर चटकीले ..
तारे की तरह ....
ये कल्पना
कोरी कोरी
जैसे कोरा कागज
भीग गया हो
सूरज की तपिस का
इंतजार हो
डर भी हो
किसी की छुअन से .......
स्पर्श का अधूरापन हो
झील के शांत जल के साथ
वो भी गर आईना हो
प्रतिबिंबित हो ........
................................................मनोज कुमार भरद्वाज (मन कुमार)