Monday, March 30, 2009

आम आदमी

हर सुबह
हर कतार आदमी

गली चोराहो पर फिरता
गड्डो में गिरता आम आदमी
आँखों में सपने
कंधो पर जिम्मेदारी
पर बारी -बारी किसी न किसी
हादसे का शिकार आदमी आम आदमी

हाथो की हथेलियो में
चन्द रंगीन कागज के टुकड़े लिए
घर पंहुचा
घर पंहुचा
फिर निकलेगा घर से
ये आदमी
आम आदमी

हर कंधे पर बैठी
एक सवारी
सवार हुआ नेता
खच्चद बना आम आदमी
है भिखारी पर बनता है
दानवीर
हर पाच वर्ष में लुटता है
खुशी से बार -बार आदमी
आम आदमी


बिकता है इसके सामने सब कुछ
विक्रेता बना खाखी
खादी खरीदार
बना ये गाँधी का
बन्दर आम आदमी


इतना भी लाचार नही है
ये आदमी

डूबा रहता है
अक्सर किसी की झील सी आँखों में
बाड़ में डूबा तो एतराज
ये आम आदमी

Tuesday, March 17, 2009

अधुरा रंग

सब रंगों से खेला मैंने एक प्यरा रंग छुट गया
सब गालो को रंगा,
पर एक प्यारा चेहरा छुट गया
एक हाथ में रंग भरा था,
दूजे में गुलाल
पर तेरे घर का खुला दरवाजा देखकर ,
सारा हौसला टूट गया

सब रंगों से खेला मैंने एक प्यरा रंग छुट गया
सभी गुलाब बागो में थे ,
एक जाने कैसे टूट गया
हर जगह बरसे थे रंग,
तेरा घर कैसे छुट गया
वो तो सबसे पहले था ,
फ़िर कैसे छुट गया

सब रंगों से खेला मैंने एक प्यरा रंग छुट गया
लोग खड़े थे ,
बेशर्म बड़े थे
पर तेरे हाथो से परदा ,
कैसे छुट गया
मेरे रंग में रंगने का ,
सपना तेरा टूट गया

सब रंगों से खेला मैंने एक प्यरा रंग छुट गया
मुझमे सब्र बड़ा था ,
एक आहट को खड़ा था
दिन ढलने से पहले ,
हौसला तेरा कैसे टूट गया
रंग देता सारा आकाश
पर एक छोटा सा बादल देखकर ,
मेरा चाँद कैसे टूट गया
सब रंगों से खेला मैंने एक प्यरा रंग छुट गया...........................

Thursday, March 12, 2009

आज मै

ये होली के एक दिन पहले 09मार्च 09 की बात है जब में यूनिवर्सिटी कैम्पस के ग्राउंड में अकेले बैठा था
और कैम्पस में दूसरा कोई नही था दूसरा कोई था भी तो वो गार्ड था / में बैठा - बैठा यूनिवर्सिटी की बिल्डिंग को देख रहा था और आज मुझे यह बिल्डिंग बहुत खुबसूरत लग रही थी उसी समय मेरे मन में कुछ पंक्तिया आई वो इस प्रकार है ...........


आज मैं ,
तेरे साये बैठा,
अपनी परछाई को ढुडता हूँ ,
तेरे संग जुड़े थे जितने रिश्ते ,
अब में उन्हें एक -एक कर तोड़ता हूँ ,
अब में किसी नए शहर की ओर ,
अपना रुख मोड़ता हूँ

आज मैं ,
तेरे साये में बैठा ,
अपने आशुओ को मोतियो सा जोड़ता हूँ ,
मेघ को देकर कुछ बुँदे उधार ,
किसी प्यासे खेत को सिचता हूँ ,
ओर एक बूंद शीप में गिराकर ,
मोत्ती बनाने का कार्य शौपता हूँ

आज में ,
तेरे साये में बैठा ,
तेरे रूप को निहारता हूँ ,
तू जैसे है एक सुंदर दुल्हन ,
तुझे विरह में छोड़ मैं ,
अब रण में लड़ने जाता हूँ


आज मैं ,
तेरे साये में बैठा ,
कुछ पन्नो को पलटाता हूँ ,
सबमे ही विराम लगे है ,
नए अध्याय के आरम्भ लगे है ,
चलो -चलो अब शब्द भी कहते है ,
नए उपन्यास के आरम्भ लगे है

आज मैं ,
तेरे साये में बैठा ,
अपनी बाहे फैलता हु ,
ऊपर नील गगन है उसमे ,
मन को लहराता हूँ उडाता हूँ ,
बस एक प्यारा सा आशियाँ , अब दुंडता हूँ

आज मैं ,
तेरे साये में बैठा ,
अपनी परछाई दुंडता हूँ !!!!!
{इस में बहुत साडी त्रुटी है उसके लिए कृपया माफ़ करिए }

Friday, March 6, 2009

मेरे संग चल

शहर कभी मेरे संग चल तुझे अपना गावँ दिखाऊ
टेडी मंदी पगडंडी पर खुशियो की शैर कराऊ
बिन ट्राफिक सिग्नल के हर राह दिखाऊ
एक छोटा सा पनघट और पानी भरती शाखियो का प्यार दिखाऊ

कभी मेरे संग चल तुझे अपना गावँ दिखाऊ
एक छोटा सा पोखरा और उसमे छलांग लगाते बच्चो का खिलखिलाता चेहरा दिखालाऊ
सावन का मधुर गीत और झुला झूलती युवतियो की अठखेलिया दिखालाऊ

शहर कभी मेरे संग चल तुझे अपना गावँ दिखाऊ
घर - घर में एक बूडा बरगद का पेड़ दिखाऊ
इसके साये में बैठे ढेर सारे रिस्तो का संसार दिखाऊ
कच्चे धागे से बंधे मजबूत रिस्तो का प्यार दिखाऊ

शहर कभी मेरे संग चल तुझे अपना गावँ दिखाऊ
तुने तो पहन रखी है
नई फटी जींस शौक से
चल तुझे रफू की पैंट एक मासूम बच्चे की दिखाऊ
शहर तेरे द्वारे तो अब बारात भी नही आती है
वो भी अब छत पर सिमटी जाती है
चल तुझे एक छोटी सी माडिया के द्वारे भी आती बड़ी बारात दिखाऊ

शहर कभी मेरे संग चल तुझे अपना गावँ दिखाऊ
तेरे घर की लड़कियों का परिधान भी सिमटा जाता है
कभी घुटनों से ऊपर और दुपट्टा मनो गायब नजर आता है
धुप हो या ना हो पर एक छाता अक्सर नजर आता है
चल तुझे पुराने मगर पुरे परिधान दिखाऊ
सर पर आँचल और घूँघट का संस्कार दिखाऊ
और कड़ी धुप में भी खेत में काम करती सावरी गोरी दिखाऊ
शहर कभी मेरे संग चल तुझे अपना गावँ दिखाऊ

शहर कभी मेरे संग चल तुझे अपना गावँ दिखाऊ .............